• शीर्ष अदालत ने कहा कि सरकार आम भलाई के लिए किसी भी निजी संपत्ति को कब्जे में नहीं ले सकती..

नई दिल्ली : सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने आज एक अहम फैसले में कहा कि किसी व्यक्ति के निजी स्वामित्व वाली हर संपत्ति को आम लोगों की भलाई के लिए उपयोग किए जाने वाले समुदाय के भौतिक संसाधन के रूप में नहीं देखा जा सकता है। यह फैसला सुनिश्चित करता है कि अब धन वितरण के उद्देश्य से बनाई जाने वाली नीतियों को अधिक सावधानी से तैयार किया जाना चाहिए। खास तौर पर स्पष्ट सामुदायिक लाभ के बिना निजी संपत्तियों के अंधाधुंध अधिग्रहण से बचना चाहिए।

शीर्ष न्यायालय ने 7:2 के अपने इस आदेश में कहा कि निजी संपत्तियां समुदाय के भौतिक संसाधनों का हिस्सा नहीं हैं जिन्हें राज्य संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुसार समान रूप से वितरित करने के लिए बाध्य है।

न्यायालय ने कहा, ‘अनुच्छेद 31सी की सुरक्षा के लिए एक पूर्ववर्ती एवं आकांक्षात्मक निर्देशक सिद्धांत के रूप में अनुच्छेद 39(बी) की व्याख्या निजी संपत्ति की संवैधानिक मान्यता के विपरीत नहीं हो सकती। यह मानना कि सभी निजी संपत्ति समुदाय के भौतिक संसाधनों का हिस्सा है और निजी संसाधनों पर सरकार का नियंत्रण ही अंतिम उद्देश्य है, ऊपर बताए गए संवैधानिक संरक्षण के अनुकूल नहीं होगा।’

अनुच्छेद 31सी के तहत उन कानूनों को संरक्षण दिया गया है जिन्हें सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं कि आम लोगों की भलाई के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों को वितरित किए जाएं। इसे 1971 के 25वें संशोधन अधिनियम द्वारा शामिल किया गया था।

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हृषीकेश रॉय, जेबी पारदीवाला, मनोज मिश्रा, राजेश बिंदल, सतीश चंद्र शर्मा और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह के पीठ ने बहुमत (7:2 के फैसले) से यह फैसला सुनाया। हालांकि न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने इससे आंशिक सहमति जताई जबकि न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने असहमति जताई।

कर्नाटक राज्य बनाम रंगनाथ रेड्डी (1978) मामले में न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर (अल्पमत राय) के उस विचार से बहुमत असहमत था कि निजी संपत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है। संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड एवं अन्य मामले में न्यायमूर्ति अय्यर के दृष्टिकोण से जताई गई सहमति को गलत माना गया।

न्यायालय ने कहा कि कुछ निजी संपत्तियां अनुच्छेद 39(बी) के अंतर्गत आ सकती हैं, बशर्ते वे भौतिक हों और समुदाय की हों। अनुच्छेद 39(बी) में कहा गया है कि सरकार को खास तौर पर अपनी नीति इस तरह तैयार करनी चाहिए ताकि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व एवं नियंत्रण आम लोगों की बेहतरीन भलाई के लिए हों।

न्यायालय ने पहले कहा था कि किसी व्यक्ति के हर निजी संसाधन को समुदाय के भौतिक संसाधन का हिस्सा नहीं माना जा सकता है। अगर ऐसा किया गया तो निवेशकों में सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में अपना फैसला 1 मई को सुरक्षित रख लिया था।

साल 1978 से पहले संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार माना जाता था। उसी साल 44वें संविधान संशोधन के बाद संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं रहा, लेकिन यह संवैधानिक अधिकार बना रहा।

संविधान के अनुच्छेद 300ए में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानून के अधिकार के बिना उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा। इससे संपत्ति के अधिकार को संवैधानिक अधिकार मिलता है।

अगस्त 2020 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा और इंदिरा बनर्जी के पीठ ने फैसला दिया था कि संपत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं रहा, लेकिन वह अनुच्छेद 300ए के तहत एक संवैधानिक अधिकार और एक मानवाधिकार बरकरार है। मौलिक अधिकारों बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को दिए गए हैं जबकि संवैधानिक अधिकार सभी को नहीं दिए जाते हैं।

साइरिल अमरचंद मंगलदास के पार्टनर गौहर मिर्जा ने कहा कि इस फैसले का असर निजी और सरकारी दोनों पक्षों पर दिखेगा। उन्होंने कहा, ‘यह फैसला धन वितरण एवं सामाजिक कल्याण के लिए सरकार की भविष्य की नीतियों को प्रभावित कर सकता है क्योंकि इससे राज्य द्वारा सामुदायिक संसाधनों की परिभाषा सीमित हो सकती है।’

सर्वोच्च न्यायालय ने वकील तुषार कुमार ने कहा, ‘संपत्ति के मालिक अब सरकार की अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों को चुनौती देने के लिए एक मजबूत कानूनी ढांचे की उम्मीद कर सकते हैं। इससे उनके संपत्ति अधिकारों को मजबूती मिलेगी। यह फैसला सरकारी अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य करता है कि निजी स्वामित्व में हस्तक्षेप करने से पहले सामुदायिक प्रभाव और संसाधन की कमी का बारीकी से आकलन किया जाए। इससे अधिक जवाबदेही को बढ़ावा मिलता है।’

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